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१२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अनुभूतियों और प्रमाणों से कर्म का अस्तित्व सिद्ध किया है, उन्हीं युक्तियों, सूक्तियों, अनुभूतियों और प्रमाणों को 'कर्मबन्ध के अस्तित्व' के विषय में समझ लेना चाहिए।' कर्मबन्ध के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले चार प्रमुख कारण
इन कारणों के अतिरिक्त कर्मबन्ध के अस्तित्व को असंदिग्ध-रूप से प्रमाणित करने के लिए चार प्रमुख कारण भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) पुद्गल और जीव का परस्पर प्रभाव, (२) प्राणी के रागात्मक और द्वेषात्मक परिणाम, (३) संसार में प्राणियों की विविधता और बहुरूपता, और (४) मन-वचन-काय के योगों की चंचलता। प्रथम कारण : कर्म-पुद्गल और जीव का पारस्परिक प्रभाव
कर्मबन्ध के अस्तित्व को सिद्ध करने वाला प्रथम कारण है-कर्मपदगल और जीव का पारस्परिक प्रभाव। हम यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि पुद्गल जीव को और जीव पुद्गलों को प्रभावित करता है। जड़ पुद्गल जीव के तन, मन और बुद्धि को प्रभावित करता है। जैसे-दवा की गोली खाते ही सिरदर्द गायब हो जाता है; पेट की पीड़ा शान्त हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य के भावों और विचारों का भी पुद्गलों पर प्रभाव पड़ता है। मंत्र क्या है? अमुक शब्दों का समूह। भाषावर्गणा के पुद्गल-रूप मंत्र का अचूक प्रभाव पड़ता है; उसका कारण है-मंत्र के पीछे संकल्प शक्ति की प्रबलता। अमुक भावों, विचारों अथवा मंत्रों से अनिष्ट कार्य बंद हो जाता है और अभीष्ट कार्य प्रारम्भ हो जाता है। सूर्य का उदय स्वाभाविक होता है। वह किसी भी प्राणी को कुछ करने की प्रेरणा नहीं देता। परन्तु सूर्योदय होते ही पशु-पक्षी अपने-अपने आहार की खोज में लग जाते हैं। मनुष्य भी प्रायः जग जाते हैं और अपना दैनिक प्रातः कृत्य करने लग जाते हैं। श्रमिक, धनिक, व्यवसायी, विद्यार्थी, शिक्षक आदि सभी प्रायः अपने-अपने व्यावसायिक कार्यों में संलग्न हो जाते हैं। किसान खेत पर जाकर उसकी देखभाल में, पहलवान अपने अखाड़े में व्यायाम आदि करने में, सुनार, लुहार, सुथार आदि अपने-अपने मनोनीत कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं। यह विभिन्न प्राणियों पर सूर्य की प्रभावशीलता का ज्वलन्त प्रमाण है। ___ इसी प्रकार जीव के राग-द्वेषादि परिणाम कर्मपुद्गलों को आकर्षित और प्रभावित करते हैं, और इस प्रकार भावकर्म के द्वारा द्रव्यकर्म का बन्ध होता है, तथैव द्रव्यकर्म (अर्थात्-पहले बंधे हुए कर्म) जीव के वैयक्तिक रागादि परिणामों के उत्पन्न होने में सहयोग देते हैं। इस प्रकार द्रव्य कर्म से भावकर्म का बन्ध होता है। स्पष्ट है कि जीव
और कर्मपुद्गल दोनों परस्पर सम्बद्ध होते हैं, और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। १. देखें-कर्मविज्ञान के प्रथम खण्ड में 'कर्म का अस्तित्व' नामक लेख। २. कर्मवाद से भावांश ग्रहण, पृ. १०१
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