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१0 कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) वर्तमान में आत्मा अकेला न होने से कर्मबन्धयुक्त मानना अनिवार्य _अगर आत्मा अकेला अपने आप में शुद्ध स्वरूपी होता तो कर्मबन्ध को मानने की कोई आवश्यकता न होती; किन्तु वर्तमान में आत्मा जब तक संसारी है, तब तक वह अकेला नहीं है, वह कर्मों से बद्ध है और कर्मबन्ध के कारण उसके नाना उपाधियाँ (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, स्वजन, परिजन, धन, मकान आदि) लगी हुई है। कर्मबन्ध के कारण ही उसे जन्म, जरा, मृत्यु, रोग आदि विभिन्न दुःख भोगने पड़ते हैं, एक गति से दूसरी गति में परिभ्रमण करना पड़ता है। इस प्रकार जीव जब तक सिद्ध-बुद्ध-मुत नहीं हो जाता, तब तक कर्मबन्धन से बद्ध रहता ही है।
कर्मबन्ध के कारण ही जीव नये-नये शरीर, नये-नये भव; नई-नई जिंदगी प्राप्त करता है। कर्मबन्ध के कारण ही आत्मा जन्म, जरा, मृत्यु और रोग आदि नाना दुःखों को तथा इष्ट-अनिष्ट संयोगों को प्राप्त करता है। यह कर्मबन्ध ही है, जो जीव को नाना गतियों और योनियों में भटकाता है। सिद्ध परमात्मा निरंजन, निराकार एवं अशरीरी होते हैं, वे आठों ही कर्मों से तथा कर्मबन्ध के चक्र से सर्वथा मुक्त हैं। वे अपने आत्म गुणों में रत हैं, अपने पूर्ण आत्म-स्वरूप में, स्व-भाव में रत हैं। इसलिए उन्हें न तो जन्म, जरा, रोग, मरण आदि की प्राप्ति का भय है और न ही वे पुनः शरीर धारण करते हैं, न उन्हें पुनः संसार में आना पड़ता है। वे एकान्त अनन्त आत्म-ज्ञान, आत्मदर्शन, आत्मिक सुख एवं आत्मिक शक्ति से परिपूर्ण हैं। अतः समस्त संसारी जीवों को जन्ममरणादि का दुःख है, व्याकुलता है, राग-द्वेषादि भाव हैं; इसीलिए उनके सात या आठ कर्म समय-समय पर प्रायः बंधते रहते हैं। इसलिए कर्मों से सर्वथा मुक्त होने तक संसारी जीवों के कर्मबन्ध होता रहता है। संसारी जीव के साथ कर्मबन्ध प्रवाहरूप से अनादि . ___ कर्मविज्ञान के पुरस्कर्ता महापुरुषों ने जीव और कर्म का सम्बन्ध प्रवाहरूप से अनादि बताया है।३ पंचास्तिकाय में इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-"जो संसारस्थ जीव है, उसके राग, द्वेष और मोहादिक परिणाम होते हैं। उन परिणामों के कारण कर्म बंधते हैं। उन बद्धकर्मों के फलस्वरूप नाना गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्मग्रहण करते ही उसे शरीर मिलता है। शरीर प्राप्त होने से इन्द्रियाँ होती हैं। जिनसे यह जीव पंचेन्द्रिय और मन (नोइन्द्रिय) के विषयों को ग्रहण करता है। विषयों को ग्रहण करने के साथ ही उन पर राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं, जिनसे विभिन्न
१. आत्म-तत्व-विचार (प्रवक्ता-विजयलक्ष्मणसूरीजी म.) से, पृ. २९३, २९४ २. देखें, प्रज्ञापनासूत्र, पद २३ ३. यथाऽनादिः स जीवात्मा, यथाऽनादिश्च पुद्गलः । द्वयोर्बन्धोऽप्यनादिः सम्बन्धो जीवकर्मणोः ॥
• -पंचाध्यायी २/३५
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