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८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
क्रोध एक प्रकार का भाव है। उसका प्रत्यक्ष दर्शन तो मति-श्रुत-ज्ञानी को नहीं हो पाता, किन्तु आँखें लाल होने, चेहरा विकराल होने, जोर-जोर से बोलने अथव हाथ-पैर आदि अंगों की चेष्टाओं पर से प्रत्येक समझदार और विवेकी, विशेषत मनोविज्ञान-वेत्ता यह जान लेता है कि इस व्यक्ति में इस समय क्रोध का प्रादुर्भाव है। इसी प्रकार अहंकार, लोभ, ईया, छल-कपट, शोक, चिन्ता, भय, जुगुप्सा, कामविकार, हास्य आदि भावों का पता भी तन, मन, वचन एवं इन्द्रियों आदि के चेष्टाओं से लग जाता है। नीतिकार भी कहते हैं-"आकृति से, संकेतों से, या इशारे से, गति (चाल-ढाल) से, चेष्टा से, बोलने से तथा नेत्र और मुख के विकारों से व्यत्ति के अन्तर्गत मनोभाव परिलक्षित हो जाते हैं।
बिजली इन स्थूल नेत्रों से देखने वालों को प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देती, किन्तु पंखा हीटर, कूलर, रोशनी आदि कार्यों के द्वारा बिजली के अस्तित्व का अनुमान किय जाता है। इसी प्रकार कर्मों का बन्ध चाहे इन्द्रियों से प्रत्यक्ष-गोचर न होता हो, फि भी कर्म-बन्धजनित कार्यों, उसके परिणामों तथा उनके फलभोगों (विपाकों) के देखकर प्रत्येक व्यक्ति यह कह सकता है कि पहले बांधे हुए इसके कर्म अब उदय आए हैं, उन्हीं पूर्वबद्ध कर्मों का फल दृष्टिगोचर हो रहा है। जैसे कि चित्तमुनि वे जीव (निर्ग्रन्थ साधु) ने सम्भूति के जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को कह दिया था-“राजन् तुमने निदान (नियाणा) करके जो कर्म बांधे (किये) थे, तथा निदान-पूर्वक ही उनक विशेषरूप से चिन्तन किया था, उसी के फल-विपाक (कर्म-फल-भोग) के कारण हमारा (इस जन्म में) यह वियोग हुआ।२
जैसे आयुर्वेदशास्त्र में पारंगत तथा नाड़ीविज्ञान का अनुभवी वैद्य रोगी की नाई तथा मुख और चेहरे आदि के लक्षण देखकर यहाँ तक कह देता है कि इस रोगी । अमुक वस्तु खाई है, उसी के कारण इसे अमुक व्याधि उत्पन्न हुई है। इसके वात पित्त या कफ में से अमुक दोष कुपित है। इस रोग का लक्षण इसके शरीर में प्रती हो रहा है। वैसे ही कर्म-विज्ञान के गहन अभ्यासी और सिद्धान्तवेत्ता व्यक्ति भी स्पष् अनुमान करके बता सकता है कि इस व्यक्ति के अमुक कर्म उदय में आया है इसलिए सम्भावना है कि इस व्यक्ति ने अमुक कर्म का बन्ध किया है। समस्त संसारी जीवों में कर्मबन्ध का अस्तित्व है
द्रव्य कर्मबन्ध के अस्तित्व की सिद्धि में एक प्रमाण यह भी है कि कर्म जीव से सम्बद्ध है, क्योंकि कर्म के कार्यरूप मूर्त शरीर से जीव का सम्बन्ध तभी बन सकता १. (क) व्यावहारिक मनोविज्ञान (लालजीराम शुक्ल) (ख) आकारिंगितर्गत्या चेष्टया भाषणेन च। नेत्र-वक्त्र-विकारश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गत मनः ॥
-हितोपदेश . २. कम्मा नियाण-पगडा, तुमे राय ! विचितिया । तेसि फल-विवागेण, विप्पओगमुवागया ॥
-उत्तराध्ययन अ. १३, गा.
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