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कर्मबन्ध का अस्तित्व १५ कर्म की उपासना करते हैं। धूम को प्राप्त होते हैं । इसका आशय है-सकाम उपासना कर्मबन्धरूप है। इष्ट का अर्थ है-वेद-विहित कर्मकाण्ड, पूर्त का अर्थ हैसामाजिक कार्यों से सम्बद्ध सकाम कर्म और दत्त का अर्थ-वेदी से बाहर के व्यक्तियों को दान देने का कार्य। ये तीनों ही कर्म वैदिक दृष्टि से भले ही शुभ हों, परन्तु हैं ये सकाम। इसलिए भले ही ये पुण्यबन्ध के कार्य हों, हैं ये कर्मबन्धरूप ही।
बौद्धदर्शन में कर्मबन्ध के विभिन्न कारणों का प्रतिपादन करते हुए उसके अस्तित्व को माना है। 'भगवद्गीता' में यत्र-तत्र बन्धन के हेतु बता कर कर्मबन्ध को स्वीकार किया गया है। महाभारत में तो स्पष्ट कहा गया है-'कर्मणा बध्यते जन्तुः'-प्राणी कर्म से बद्ध हो जाता है। इस प्रकार प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने कर्मबन्ध को एक स्वर से स्वीकार किया है।
कर्मबन्ध के अस्तित्व के सम्बन्ध में पाश्चात्य लेखकों के विचार पाश्चात्य विचारक पॉल ब्रटन (Paul Brunton) अपनी पुस्तक टीचिंग बियोंड दी योग (Teaching beyond the Yoga) में लिखते हैं-“कर्मबन्ध का सिद्धान्त ईसामसीह के उपदेशों में था, परन्तु कितने ही स्वार्थी व्यक्तियों ने उसे ईसा के उपदेशों में से निकाल दिया। अब उसकी पुनः प्रतिष्ठा करनी चाहिए। यह कार्य वर्तमान युग की परिस्थिति को देखकर अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है। युग की इस मांग को देखकर विचारकों को बाध्य होकर भी इस ओर दो कदम बढ़ाने चाहिए। पुनर्जन्म
और कर्म का सिद्धान्त राष्ट्र को स्वावलम्बी बनाता है। इन दोनों में न तो अन्धश्रद्धा है और न ही विवेकशून्यता या असम्बद्धता को अवकाश।"
इसी प्रकार दूसरी एक पाश्चात्य लेखिका 'सीवल लीक' अपनी पुस्तक "रि-इन्कारनेशन ऑफ द सेकंड चांस" में लिखती है-“अज्ञान के कारण हम कर्मों का या कर्मबन्धनों का अस्वीकार कर सकते हैं, किन्तु कर्म हमारा अस्वीकार नहीं करता, वह तो आपके चिपक ही जाता है।" . जैसे-चौराहे पर No parking-नो पार्किंग (गाड़ी खड़ी करना मना है) का बोर्ड लगा है; किन्तु इधर-उधर नजर घुमाने पर पुलिसमैन दिखाई नहीं दिया। अतः चालाकी से उस व्यक्ति ने अपनी कार वहाँ पार्क करदी। किन्तु जैसे ही उसने अपनी कार पार्क कर निश्चिंतता की सांस ली, वैसे ही खाकी वर्दी पहने पुलिसमैन तैयार मिला। गाफिल आदमी सोच सकता है कि पुलिसमैन हमें नहीं देख रहा है, किन्तु पुलिसमैन की चौकन्नी नजर तो उस पर तुरंत जाती है और उसे पकड़ते देर नहीं लगती; वैसे ही मनुष्य चाहे अंधेरे में, एकान्त में या निर्जन स्थान में कोई पापकर्म करके यह सोचे कि इसका बन्ध नहीं होगा, परन्तु पापकर्म कर मन से १. छान्दोग्य उपनिषद् ५/१०/३
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