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१६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
विचार करते ही वह बंध जाता है, चिपक जाता है। वह पापकर्म कर्ता से अधिक चौकन्ना है। १
निष्कर्ष यह है कि कोई व्यक्ति कर्मबन्ध को माने या न माने; कर्मबन्ध तो मन में शुभ या अशुभ परिणाम आते ही वह तुरन्त हो जाता है और समय आने पर अपने अस्तित्व का परिचय दे ही देता है।
संसारी जीव : कर्मबन्ध का जीता-जागता परिचायक
वस्तुतः आत्मा का स्वभाव से हट कर परभावों या रागादि विभावों में परिणमन होना ही कर्मबन्ध को न्यौता देना है। विविध प्रकार के कर्मों का बन्ध एक या दूसरे रूप में, न्यूनाधिक रूप से समस्त सांसारिक जीवों में पाया जाता है। एक तरह से, संसारी प्राणी अपने आप में स्वयं कर्मबन्ध के अस्तित्व का जीता-जागता परिचायक है। अतः इस प्रत्यक्ष अनुभूत वस्तु को न मानने से कर्मबन्ध का अभाव सिद्ध नहीं हो
सकता।
१. (क) Teaching beyond the Yoga (By. Paul Brunton ) (ख) Re - Incarnation of the second chance (By Sival Leak) (ग) रे कर्म तेरी गति न्यारी ( आ. श्री विजयगुणरत्न सूरी जी) से, पृ. १५
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