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१८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मवन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) - उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं, जिनसे आप स्वयं अनुभव कर सकेंगे कि जीवों के दुःखों का मूल कारण क्या है? मकान के खरीदार को अचानक दुःख क्यों प्राप्त हुआ?
एक व्यक्ति के पास चार लाख रुपयों का आलीशान तिमंजला भवन है। वह उसे बेचकर धन अपने व्यापार में लगाना चाहता है। एक ग्राहक आता है, उसे मकान पंसद आ जाता है। उसके साथ सौदा तय हो जाता है। मकान मालिक को वह चार लाख रुपये देकर उस मकान को खरीद लेता है। मकान मालिक उन रुपयों को गिनकर अपनी तिजोरी में रख लेता है। रात हुई। उस खरीदे हुए भव्य भवन में अचानक आग लग गई। आठ घंटों में सारा मकान जल कर भस्म हो गया। अभी.इस मकान को खरीदने वाला अपने परिवार-सहित मकान में रहने के लिए आया भी नहीं था, उससे पहले ही मकान जलकर राख हो गया।
इस मकान का खरीदार फफक-फफककर रोने और आर्तध्यान करने लगा-हाय! मेरी चार लाख की पूंजी भी गई, और मकान भी हाथ न लगा ! मुझे ऐसा दुःख क्यों आ पड़ा?१
कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ से वह पूछता है तो उसे यही उत्तर मिलता है-इस दुःख का मूल कारण पूर्वबद्ध कर्म ही हैं। इस दुःख का कारण न तो कोई ईश्वर है, न ही कोई देवी-देव है और न कोई मनुष्य है। तेरे ही द्वारा बांधे हुए कर्म कारण हैं। रूपवती धनिकपुत्री पर शारीरिक-मानसिक दुःख क्यों आ पड़ा? ___एक लड़की अत्यन्त रूपवती है, अतीव बुद्धिमती है, विनीत और सुशील है, घर के सब लोगों को प्रिय है। धनाढ्य पिता की लाड़ली पुत्री है। माता का भी उस पर अपार प्रेम है।
एक दिन उसके मुख पर सफेद दाग दिखाई दिया। वही दिनानुदिन बढ़ता गया। हाथ, पैर, कमर, पेट आदि शरीर के सभी अंगों पर सफेद दाग हो गये। एक ही वर्ष में वह कुष्टरोग इतनी तेजी से फैला कि उसने सारे शरीर पर अधिकार जमा लिया।
जिस लड़की को एक दिन सभी प्यार करते थे, अब उससे सभी घृणा करने लगे। उसके साथ खाने-पीने तथा उसके हाथ का बनाया हुआ भोजन खाने में, यहाँ तक कि उसके पास बैठने-उठने से सभी परहेज करने लगे। कोई उससे मधुरतापूर्वक बात नहीं करता। बात-बात में सभी उसका तिरस्कार करने लगे। जितने भी अच्छे-अच्छे नामी डॉक्टर, वैद्य, हकीम, होमियोपैथ, नेचरोपैथ (प्राकृतिक चिकित्सक) आदि थे, उन सबका इलाज करवाया गया। उसके पिता ने पैसा पानी की तरह बहाया। मंत्र, तंत्र, यंत्र आदि सभी उपाय अजमा लिये। परन्तु उसका यह रोग नहीं मिटा, सो नहीं मिटा।
१. जैनदर्शनमा कर्मयाद (पं चन्द्रशेखर विजयजी गणि) से, सारांश ग्रहण पृष्ठ ७
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