________________
कर्मबन्ध का अस्तित्व ७
अतः ये और ऐसे अनेकों आगम-प्रमाण कर्मबन्ध और उसके फल के विषय में होते हुए भी कैसे कहा जा सकता है कि कर्मबन्ध नहीं है, वह जीव द्वारा कृत (बद्ध) नहीं है, उसका दुःखरूप फल उसे नहीं भोगना पड़ता ?
.
हठाग्रही और नास्तिक भी परोक्ष बातों को अनुमान से मानने को बाध्य
इतने प्रमाण होते हुए भी हठाग्रही और कुतर्की लोग वीतराग सर्वज्ञ आप्त पुरुषों की अनुभूति एवं प्रत्यक्ष ज्ञान से जानी हुई बातों को मानने को तैयार नहीं, जबकि वे ही नास्तिक, अश्रद्धालु या हठाग्रही लोग कर्मबन्ध आदि के सिवाय अन्य कई परोक्ष बातों को भी अनुमान और तर्क से मानते देखे गए हैं। उन नास्तिकों या प्रत्यक्षवादियों ने अपने दादे या परदादे को प्रत्यक्ष नहीं देखा है, फिर भी अनुमान के आधार पर उन्हें मानना पड़ता है कि हमारा दादा या परदादा था; तभी तो वह उनका पोता या परपोता कहलाता है। यदि दादा या परदादा नहीं होता, तो वह कहाँ से आता ? किसी नास्तिक या प्रत्यक्षवादी ने दादा या परदादा प्रत्यक्ष नहीं देखा होता है, किन्तु घर में रखे हुए उनके चित्र या फोटो पर से उसे यह कहना और मानना पड़ता है कि ये मेरे दादाजी या परदादाजी थे। जीवन में ऐसे कई प्रसंग आते हैं, जबकि ऐसे लोगों को प्रत्यक्ष न देखी हुई कई वस्तुओं, व्यक्तियों या घटनाओं को फोटो, चित्र, पुस्तक, इतिहास, भूगोल, नकशे, आप्तकथन या स्वप्न-दर्शन आदि कई माध्यमों से उन्हें या उनके अस्तित्व को प्रत्यक्षवत् मानना पड़ता है। विदेश या परदेश में कई वर्षों से गए हुए नास्तिक के पुत्र का पत्र आता है, तब उसे पढ़ कर, वर्तमान में पुत्र के परोक्ष होने पर भी वह कह बैठता है - 'यह मेरे पुत्र का पत्र है ।'' इसी प्रकार कर्मबन्ध प्रत्यक्ष न दीखने पर भी आगम और अनुमान प्रमाण से उसे मानने में क्या आपत्ति है ?
अनुमान आदि प्रमाणों से भी कर्मबन्ध की सिद्धि
कर्मबन्ध इन्द्रिय- प्रत्यक्ष न होने पर भी अनुमानादि प्रमाणों से भी सिद्ध है। किसी भी संसारी जीव के लक्षणों, प्रवृत्तियों अथवा स्वभावों आदि पर से भी अनुमान लगाया जा सकता है कि “इस जीव या मनुष्य ने पूर्वजन्म में अथवा इस जन्म में पहले अमुक-अमुक कर्म बांधा होगा, वही कर्म अब उदय में आया है, जिसका फल यह अमुक रूप में भोग रहा है।" जैसे कि समुद्रपाल ने अपने प्रासाद में बैठे हुए वध्य (मृत्युदण्ड दिये जाने योग्य) व्यक्ति के शरीर पर मण्डित चिह्नों आदि से युक्त चोर को Safai द्वारा ले जाते हुए देख संवेग प्राप्त होकर यों कहा - " अहो ! इस चोर (वध्य) के द्वारा पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों का ही यह पापरूप फल है !२
JYS
१. न्याय सिद्धान्तमुक्तावली (नृसिंहदेव कृत व्याख्या) से भावांशग्रहण
२. अह अनया कयाई, पासायालोयणे ठिओ । बज्झ-मंडण - सोभार्ग, बज्झ पासइ बज्झगं ॥ तं पासिऊण संविग्गो समुद्दपालो इणमब्बवी । अहो सुहा कम्माण, निज्जाणं पावर्ग इमं ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- उत्तराध्ययन अ. २१/८,९
www.jainelibrary.org