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जहाँ कर्म, वहाँ संसार ३९
संसार अनादि है, इसलिए प्रवाहरूप से कर्म भी अनादि है । वेदान्त दर्शन के मूर्धन्य ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र में संसार को अनादि मानकर 'कर्म' का उसके साथ कार्य-कारण भाव स्वीकार किया है। बीज और अंकुर की तरह कर्म और संसार को शांकरभाष्य में बताया गया है। इस पर से भी संसार का मुख्य कारण कर्म ही सिद्ध होता है।
कर्म और संसार का अविनाभाव - सम्बन्ध
कर्म और संसार का अविनाभाव सम्बन्ध है । जहाँ संसार है या जब तक संसार दशा है, वहाँ या तब तक कर्म अवश्य ही रहेगा। घर, पुत्र, स्त्री, धन, शरीर आदि का नाम संसार नहीं है। ये सब उपाधियाँ हैं, जो प्रत्येक संसारी जीव को अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार प्राप्त होती हैं। जितनी भी सांसारिकं सुख - भोग की, अथवा दुःख - प्राप्ति की, इष्ट-अनिष्ट, अनुकूल-प्रतिकूल, मनोज्ञ - अमनोज्ञ सामग्री प्राप्त होती है, वह भी शुभाशुभ कर्म-जन्य हैं। कर्मों में भी घाती कर्म रहेंगे, वहाँ तक पर भावों के प्रति राग-द्वेष, मोह, अज्ञान, भ्रम, संशय, विपर्यय, क्रोधादि कषाय, आसक्ति आदि होते रहेंगे, आत्मा में विषय- कषायों की तरंगें आती रहेंगी। कर्मों के जल से परिपूर्ण यह संसार-समुद्र है। संसार - समुद्र को जब तक रत्नत्रय - साधना रूपी नौका द्वारा पार नहीं किया जाएगा, तब तक कर्मों का सद्भाव रहेगा।
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इसलिए संसार और कर्म का अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध है । जहाँ-जहाँ कर्म है, वहाँ-वहाँ संसार है, और जहाँ-जहाँ कर्म नहीं है, वहाँ वहाँ संसार नहीं है। जब तक इन दोनों का सम्बन्ध बना रहेगा, तब तक संसार का चक्र और कर्म का चक्र दोनों साथ-साथ अविरत घूमते रहेंगे।
संसार चक्र: कर्म चक्र के कारण
संसार-चक्र और कर्म चक्र के अविनाभावी सम्बन्ध को विस्तृत रूप से स्पष्ट करते हुए 'पंचास्तिकाय' में बताया है - "जो जीव संसार में स्थित है, उसके रागद्वेषादिरूप परिणाम होते हैं और उन परिणामों से नये कर्मों का बन्ध होता है। उन कर्मों के कारण उसे एक गति से दूसरी और दूसरी से तीसरी, यों नाना गतियों में जन्म लेना पड़ता है। किसी भी गति में
१ (क) न कर्मा विभागात् इति चेन्न, अनादित्वात् ।
• ब्रह्मसूत्र २/१/३५
(ख) शांकरभाष्य – नैषः, अनादित्वात् संसारस्य । भवेदेष दोषो यदि आदिमान् संसारः स्यात् । अनादौ तु संसारे बीजांकुरवत् हेतु हेतुमद्भावेन कर्मणः सर्गवैषम्यस्य च प्रवृत्तिर्न विरुद्धयते । कम्मुणा उवाही जायडू |
- आचारांग श्रु. १ अ. ३ उ. १
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