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प्रथमः सर्गः वर्धमानजिनेन्द्राऽऽस्यादिन्द्रभूतिः श्रुतं दधे । ततः सुधर्मस्तस्मात्तु जम्बूनामान्त्यकेवली ॥६०॥ तस्माद्विष्णुः क्रमात् तस्मान्नन्दिमित्रोऽपराजितः । ततो गोवर्धनो दधे भद्रबाहुः श्रतं ततः ॥६१।। दशपूर्वी विशाखाख्यः प्रोष्ठिलः क्षत्रियो जयः । नागसिद्धार्थनामानौ तिषेणगुरुस्ततः ।।६२॥ विजयो बुद्धि लामाख्यो गङ्गदेवामिधस्ततः । दशपूर्वधरोऽन्त्यस्तु धर्मसेनमुनीश्वरः ।।६३॥ नक्षत्राख्यो यशःपालः पाण्डुरेकादशाङ्गक । ध्रुवसेनमुनिस्तस्मात् कंसाचार्यस्तु पञ्चमः ॥६॥ सुभद्रोऽतो यशोमद्रो यशोबाहुरनन्तरः । लोहाचार्यस्तुरीयोऽभूदाचाराङ्गतां ततः ॥६५॥ पूर्वाचार्येभ्य एतेभ्यः परेभ्यश्च वितन्वतः । एकदेशागमस्यायमेकदेशोऽपदिश्यते ॥६६॥ अर्थतः पूर्व एवायमपूर्वो ग्रन्थतोऽल्पतः । शास्त्रविस्तरमीरुभ्यः क्रियते सारसंग्रहः ॥६७॥ मनोवाकाय शुद्धस्य भव्यस्याभ्यस्यतः सदा । श्रेयस्करपुराणार्थो वक्तुः श्रोतुश्च जायते ॥६८॥ बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधेऽपि तपोविधौ । अज्ञानप्रतिपक्षत्वात् स्वाध्यायः परमं तपः ॥६९।। यतस्ततः पुराणार्थः पुरुषार्थकरः परः । वक्तव्यो देशकाल ः श्रोतव्यस्त्यक्तमत्सरैः ।।७०॥ लोकसंस्थानमत्रादौ राजवंशोद्भवस्ततः । हरिवंशावतारोऽतो वसुदेवविचेष्टितम् ॥७१॥ चरितं नेमिनाथस्य द्वारवस्या निवेशनम् । युद्धवर्णननिर्वाणे पुराणेऽष्टा शुभा इमे ॥७२॥
संग्रहादधिकारैः स्वैः संगृहीतैरलंकृताः । अधिकाराः सूत्रिताः प्रोक्सूरिसूत्रानुसारिभिः ॥७३॥ पंचमकालमें तीन केवली, पांच चौदह पूर्व के ज्ञाता, पाँच ग्यारह अंगोंके धारक, ग्यारह दशपूर्वके जानकार और चार आचारांगके ज्ञाता इस तरह पांच प्रकारके मनि हए हैं ।।५८-५९||
श्री वर्धमान जिनेन्द्र के मुखसे श्री इन्द्रभूति (गौतम ) गणधरने श्रतको धारण किया उनसे सुधर्माचार्यने और उनसे जम्बू नामक अन्तिम केवलीने ॥६०।। उनके बाद क्रमसे १ विष्णु, २ नन्दिमित्र, ३ अपराजित, ४ गोवर्धन, और ५ भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए ॥६१।। इनके बाद ग्यारह अंग और दशपूर्वके जाननेवाले निम्नलिखित ग्यारह मुनि हुए-१ विशाख, २ प्रोष्ठिल, ३ क्षत्रिय, ४ जय, ५ नाग, ६ सिद्धार्थ, ७ धृतिषेण, ८ विजय, ९ बुद्धिल, १० गंगदेव, और ११ धर्मसेन ॥६२-६३।। इनके अनन्तर १ नक्षत्र, २ यशःपाल, ३ पाण्डु, ४ ध्रुवसेन और ५ कंसाचार्य ये पांच मुनि ग्यारह अंगके ज्ञाता हुए ॥६४।। तदनन्तर १ सुभद्र, २ यशोभद्र, ३ यशोबाह और लोहाय ये चार मुनि आचारागक धारक हुए ॥६५।। इस प्रकार इन तथा अन्य आचार्योसे जो आगमका एकदेश विस्तारको प्राप्त हआ था उसीका यह एकदेश यहाँ कहा जाता है ॥६६॥ यह ग्रन्थ अर्थकी अपेक्षा पूर्व ही है अर्थात् इस ग्रन्थमें जो वर्णन किया गया है वह पूर्वाचार्योंसे प्रसिद्ध ही है परन्तु शास्त्रके विस्तारसे डरनेवाले लोगोंके लिए इसमें संक्षेपसे सारभूत पदार्थोंका संग्रह किया गया है इसलिए इस रचनाकी अपेक्षा यह अपूर्व अर्थात् नवीन है ॥६७॥ जो भव्यजीव मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक सदा इसका अभ्यास करते हुए कथन अथवा श्रवण करेंगे उनके लिए यह पुराण कल्याण करनेवाला होगा ॥६८।। बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे तप दो प्रकारका कहा गया है सो उन दोनों प्रकारके तपोंमें अज्ञानका विरोधी होनेसे स्वाध्याय परम तप कहा गया है ॥६९।। यतश्च इस पुराणका अर्थ उत्तम पुरुषार्थों का करनेवाला है इसलिए देश-कालके ज्ञाता मनुष्योंके लिए मात्सर्यभाव छोड़कर इसका कथन तथा श्रवण करना चाहिए ।।७०॥
___ इस पुराणमें सर्वप्रथम लोकके आकारका वर्णन, फिर राजवंशोंकी उत्पत्ति, तदनन्तर हरिवंशका अवतार, फिर वसुदेवकी चेष्टाओंका कथन, तदनन्तर नेमिनाथ का चरित, द्वारिकाका निर्माण, युद्धका वर्णन और निर्वाण-ये आठ शुभ अधिकार कहे गये हैं ॥७१-७२।। ये सभी १. यशःपालपाण्डु-ख., म.। २. धृग म.। ३. धृतस्ततः म. । ४. द्वारावत्या म.। ५. पर्वाचार्यकृतशास्त्रानुगामिभिः।
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