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हरिवंशपुराणे रंजोबहुलमारूक्षं खलं कालं विदाहिनम् । सन्तः काले कलध्वानाः शमयन्ति यथा धनाः ॥४७।। साध्वसाधुसमाकारप्रवृत्तमबुधं बुधाः । वारयन्ति तमोराशिं रवीन्द्वोरिव रश्मयः ।।४८॥ इत्थं साधुसहायोऽहमनातङ्कमनुद्धतम् । देहं काव्यमयं लोके करोमि स्थिरमात्मनः ॥४९॥ बद्धमूलं भुवि ख्यातं बहुशाखाविभूषितम् । पृथुपुण्यफलं पूर्त कल्पवृक्षसमं परम् ॥५०॥ अरिष्टनेमिनाथस्य चरितेनोज्ज्वलीकृतम् । पुराणं हरिवंशाख्यं ख्यापयामि मनोहरम् ।।५१॥ [युग्मम्] धमणिद्योतितं द्योत्यं द्योतयन्ति यथाणवः । मणिप्रदीपखद्योतविद्यतोऽपि यथायथम् ॥५२॥ द्योतितस्य तथा तस्य पुराणस्य महात्मभिः । द्योतने वर्ततेऽत्यल्पो मादशोऽप्यनुरूपतः ॥५३॥ . विप्रष्टमपि ह्यर्थ सौकुमार्ययुतं मनः । सूरिसूर्यकृतालोकं लोकचक्षुरिवेक्षते ॥५४॥ पञ्चधाप्रविमक्तार्थ क्षेत्रादिप्रविमागतः । प्रमाणमागमाख्यं तत्प्रमाणपुरुषोदितम् ॥५५॥ तथाहि मूलतन्त्रस्य कर्ता तीर्थकरः स्वयम् । ततोऽप्युत्तरतन्त्रस्य गौतमाख्यो गणाग्रणीः ॥५६॥ उत्तरोत्तरतन्त्रस्य कतारो बहवः क्रमात् । प्रमाणं तेऽपि नः सर्वे सर्वज्ञोक्त्यनुवादिनः ॥५७॥ त्रयः केवलिनः पञ्च ते चतुर्दशपूर्विणः । क्रमेणकादश प्राज्ञा विज्ञेया दशपूर्विणः ॥५०॥
पञ्चैवैकादशाङ्गानां धारकाः परिकीर्तिताः । आचाराङ्गस्य चत्वारः पञ्चधेति युगस्थितिः ॥५९॥ साँपोंको सज्जनरूपी विषवैद्य अपनी शक्तिसे शीघ्र ही वश कर लेते हैं ॥४६।। जिस प्रकार मधुर गर्जना करनेवाले मेघ, अत्यधिक धूलिसे युक्त, रूक्ष और तीव्र दाह उत्पन्न करनेवाले ग्रीष्मकालको समय आनेपर शान्त कर देते हैं उसी प्रकार मधुर भाषण करनेवाले सत्पुरुष, अत्यधिक अपराध करनेवाले, कठोर प्रकृति एवं सन्ताप उत्पन्न करनेवाले दुष्ट पुरुषको समय आनेपर शान्त कर लेते हैं ।।४७।। जिस प्रकार सूर्य और चद्रमाकी किरणें, अच्छे और बुरे पदार्थों को एकाकार करनेमें प्रवृत्त अन्धकारको राशिको दूर कर देतो हैं उसी प्रकार विद्वान् मनुष्य, सज्जन और दुर्जनके साथ समान प्रवृत्ति करने में तत्पर मूर्ख मनुष्यको दूर कर देती हैं ॥४८॥ इस प्रकार साधुओंकी सहायता पाकर मैं रोग और अभिमानसे रहित अपने इस काव्यरूपी शरीरको संसारमें स्थायी करता हूँ॥४९।। अब मैं उस हरिवंश पुराणको कहता हूँ जो बद्धमूल है-प्रारम्भिक इतिहाससे सहित ( पक्षमें जड़से युक्त है ), पृथिवीमें अत्यन्त प्रसिद्ध है, अनेक शाखाओं-कथाओं-उपकथाओंसे विभूषित है, विशाल पुण्यरूपी फलसे युक्त है, पवित्र है, कल्पवृक्षके समान है, उत्कृष्ट है, श्री नेमिनाथ भगवान्के चरित्रसे उज्ज्वल है, और मनको हरण करनेवाला है ॥५०-५१।। जिस प्रकार सूर्यके द्वारा प्रकाशित पदार्थको, अत्यन्त तुच्छ तेजके धारक मणि, दीपक, जुगनू तथा बिजली आदि भी
ग्य-अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार प्रकाशित करते हैं उसी प्रकार बडे-बड़े विद्वान महात्माओंके द्वारा प्रकाशित इस पुराणके प्रकाशित करने में मेरे जैसा अल्प शक्तिका धारक पुरुष भी अपनो सामर्थ्यके अनुसार प्रवृत्त हो रहा है ॥५२-५३।। जिस प्रकार सूर्यका आलोक पाकर मनुष्यका नेत्र दूरवर्ती पदार्थको भी देख लेता है उसी प्रकार पूर्वाचार्यरूपी सूर्यका आलोक पाकर मेरा सुकुमार मन अत्यन्त दूरवर्ती-कालान्तरित पदार्थको भी देखने में समर्थ है ॥५४।। जिसके प्रतिपादनीय पदार्थ-क्षेत्र, द्रव्य, काल, भव और भावके भेदसे पाँच भेदोंमें विभक्त हैं तथा प्रामाणिक पुरुषों-आप्तजनोंने जिसका निरूपण किया है ऐसा आगम नामका प्रमाण, प्रसिद्ध प्रमाण है ।।५५।। इस तन्त्रके मूलकर्ता स्वयं श्री वर्धमान तीर्थंकर हैं, उनके बाद उत्तर तन्त्रके कर्ता श्री गौतम गणधर हैं, और उनके अनन्तर उत्तरोत्तर तन्त्रके कर्ता क्रमसे अनेक आचार्य हुए हैं सो वे सभी सर्वज्ञके कथनका अनुवाद करनेवाले होनेसे हमारे लिए प्रमाणभूत हैं ॥५६-५७।। इस १. पापप्रचरं पक्षे धलिबहलम । २. दाहोत्पादकम् उष्णकालम् । ३. द्योतनं म.। ४. लघवः । ५ रविप्रकटीकृतम् । ६. द्रव्यक्षेत्रकालादिभिरन्तरितार्थ मूर्तामूर्तम् । ७. सर्वज्ञवाणीप्रकाशकाः । ८. केवलिनः चतुर्दशपूर्वधारिणः, दशपूर्वधारिणः, एकादशाङ्गधारिणः, एकाङ्गधारिणः एते पञ्चधा मुनयः ।
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