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हरिवंशपुराणे
जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥ १५ ॥ “इन्द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्यापिव्याकरणे क्षिणैः । देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥ ३० ॥ वज्रसूरेर्विचारिण्यः सहेश्वोर्बन्धमोक्षयोः । प्रेमाणं धर्मशास्त्राणां प्रर्वक्तृणामिवोक्तयः ॥ १२ ॥ महासेनस्य मधुरा शीळालंकारधारिणी । कथ । न वर्णिता केन वनितेव सुलोचना ||३३|| कृत पद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्त्तिता । मूर्त्तिः काव्यमयी लोके खेरिव खेः प्रिया || ३४ || वराङ्गनेव सर्वाङ्गेर्वराङ्गचरितार्थवाक् । कस्य नोपादयेद् गाढमनुरागं स्वगोचरम् | ५|| शान्तस्यापि च वक्रोक्ती रम्योत्प्रेक्षाबलान्मनः । कस्य नोद्घाटितेऽन्वर्थे रमणीयेऽनुरञ्जयेत् ॥ ३६॥ 'योऽशेषोक्तिविशेषेषु विशेषः पद्यगद्ययोः । विशेषवादिता तस्य विशेषत्रयवादिनः ||३७||
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वचन इस संसारमें भगवान् महावीरके वचनोंके समान विस्तारको प्राप्त हैं ||२९|| जिनका ज्ञान संसार में सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्री सिद्धसेन की निर्मल सूक्तियाँ श्री ऋषभ जिनेन्द्रकी सूक्तियोंके समान सत्पुरुषों की बुद्धिको सदा विकसित करती हैं ||३०|| जो इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरणोंका अवलोकन करनेवाली है ऐसी देववन्द्य देवनन्दी आचार्यकी वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है ? ॥३१॥ जो हेतु सहित बन्ध और मोक्षका विचार करनेवाली हैं ऐसी श्री वज्रसूरिकी उक्तियाँ धर्मशास्त्रोंका व्याख्यान करनेवाले गणधरोंकी उक्तियोंके समान प्रमाणरूप हैं ||३२|| जो मधुर है - माधुर्यं गुणसे सहित है ( पक्षमें अनुपम रूपसे युक्त है) और शीलालंकारधारिणी है— शीलरूपी अलंकारका वर्णन करनेवाली है (पक्षमें शीलरूपी अलंकारको धारण करनेवाली है) इस प्रकार सुलोचनासुन्दर नेत्रोंवाली वनिताके समान, महासेन कविकी सुलोचना नामक कथाका किसने वर्णन नहीं किया है ? अर्थात् सभीने वर्णन किया है ||३३|| श्री रविषेणाचार्यकी काव्यमयी मूर्ति सूर्यकी मूर्तिके समान लोक अत्यन्त प्रिय है क्योंकि जिस प्रकार सूर्यकी मूर्ति कृतपद्मोदयोद्योता है अर्थात् कमलोंके विकास और उद्योत - प्रकाशको करनेवाली है उसी प्रकार रविषेणाचार्यकी काव्यमयी मूर्ति भी कृतपद्मोदयोद्योता अर्थात् श्री रामके अभ्युदयका प्रकाश करनेवाली है - पद्मपुराणकी रचनाके द्वारा श्री रामके अभ्युदयको निरूपित करनेवाली है और सूर्यकी मूर्ति जिस प्रकार प्रतिदिन परिवर्तित होती रहती है उसी प्रकार रविषेणाचार्यकी काव्यमयो मूर्ति भी प्रतिदिन परिवर्तित - अभ्यस्त होती रहती है ||३४|| जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त-मुख-पाद आदि अंगोंके द्वारा अपने आपके विषय में मनुष्योंका गाढ़ अनुराग उत्पन्न करती रहती है उसी प्रकार * श्री वरांग चरितकी अर्थपूर्ण वाणो भी अपने समस्त छन्द - अलंकार रीति आदि अंगोंसे अपने आपके विषयमें किस मनुष्यके गाढ़ अनुरागको उत्पन्न नहीं करती ? ||३५|| श्री शान्त ( शान्तिषेण ) कविकी वक्रोक्ति रूप रचना, रमणीय उत्प्रेक्षाओंके बलसे, मनोहर अर्थके प्रकट होने पर किसके मनको अनुरक्त नहीं करती है ? ||३६|| जो गद्य-पद्य सम्बन्धी समस्त विशिष्ट उक्तियोंके विषयमें विशेष अर्थात् तिलकरूप हैं तथा जो विशेषत्रय ( ग्रन्थविशेष ) का निरूपण करनेवाले हैं ऐसे विशेषवादी
१. स्पष्टाः २. रुद्रचन्द्रार्क क., म., घ, ङ. । इन्द्र ख., म । ३. - णेक्षणाः म । 'व्याकरणेशिनः' इत्यपि पाठ: । ४. देवसंघस्य ख. म. । ५. प्रमाणभूताः । ६. गणवरदेवानाम् । ७. सुनेत्रा सुलोचनानाम्नी कथा च । ८. पद्मं कमलं रामश्च । ९. पद्मपुराणकर्तुः रविषेणाचार्यस्य । १०. वराङ्गकथा अत्र वराङ्गचरितकर्तुः श्रीजासिंहनन्दिनः कवेर्नाम नोल्लिखितम् । ११. वादिराजमुनिना पार्श्वनाथ चरितेऽपि समुल्लेखः कृतः -- "विशेषवादिगीर्गुम्फश्रवणासक्तबुद्धयः । अक्लेशादधिगच्छन्ति विशेषाभ्युदयं बुधाः ।"
* यहाँ कविने वराङ्गचरितके रचयिता जटासिंहनन्दीका उल्लेख न कर केवल ग्रन्थका ही उल्लेख किया है ।
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