________________
प्रथमः सर्गः येन सप्तदशं तीर्थ 'प्रावर्ति पृथुकीर्तिना' । तस्मै कुन्थुजिनेन्द्राय नमः प्राक्चक्रवर्तिने ॥१९॥ नमोऽष्टादशतीर्थन प्राणिनामिष्टकारिणे । चक्रपाणिजिनाराय निरस्तदुरितारये ॥२०॥ तीर्थेनैकोनविंशेन स्थापितस्थिरकीर्तये । नमो मोहमहामल्लमाथिमल्लाय मल्लये ॥२१॥ स्वं विंशतितमं तीर्थं कृत्वेशो मुनिसुव्रतः । अतारयद् भवाल्लोकं यस्तस्मै सततं नमः ॥२२॥ नमये मुनिमुख्याय नमितान्तर्बहिर्द्विषे । एकविंशस्य तीर्थस्य कृताभिव्यक्तये नमः ।।२३।। मास्वते हरिवंशादिश्रीशिखामणये नमः । द्वाविंशतीर्थसच्चक्रनेमयेऽरिष्टनेमये ॥२४॥ धर्ता धरणनिधूतपर्वतोद्धरणासुरः । त्रयोविंशस्य तीर्थस्य पाश्वो विजयतां विभुः ॥२४॥ इत्यस्यामवसर्पिण्यां ये तृतीय चतुर्थयोः । कालयोः कृततीर्थास्ते जिना नः सन्तु सिद्धये ॥२६॥ येऽतीतापेक्षयाऽनन्ताः संख्येया वर्तमानतः। अनन्तानन्तमानास्तु माविकालव्यपेक्षया ॥२७॥ तेऽहन्तः सन्तु नः सिद्धाः सूर्युपाध्यायसाधवः । मङ्गलं गुरवः पञ्च सर्वे सर्वत्र सर्वदा ॥२८॥ "जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्मते ॥२९॥
चक्ररत्नके स्वामी थे, और स्वयं अत्यन्त शान्त थे उन शान्तिनाथ जिनेन्द्र के लिए नमस्कार हो ।।१८।। जिन्होंने सत्रहवाँ तीर्थं प्रवृत्त किया था, जो विशाल कीतिके धारक थे, तथा जो जिनेन्द्र होनेके पूर्व चक्ररत्नको प्रवृत्त करनेवाले-चक्रवर्ती थे उन श्री कुन्थु जिनेन्द्रको नमस्कार हो ।।१९।। जो अठारहवें तीर्थंकर थे, प्राणियोंका कल्याण करनेवाले थे, और जिन्होंने पापरूपी शत्रुको नष्ट कर दिया था उन चक्ररत्नके धारक भी अरनाथ जिनेन्द्र के लिए नमस्कार हो ॥२०॥ जिन्होंने उन्नीसवें तीर्थके द्वारा अपनी स्थायी कीर्ति स्थापित की थी. तथा जो मोहरूपी महामल्लको करनेके लिए अद्वितीय मल्ल थे ऐसे मल्लिनाथ भगवान्के लिए नमस्कार हो ॥२१।। जिन्होंने अपना बीसवाँ तीथं प्रवृत्त कर लोगोंको संसारसे पार किया था उन श्री मुनिसुव्रत भगवान्के लिए निरन्तर नमस्कार हो ।।२२।। जो मुनियोंमें मुख्य थे, जिन्होंने अन्तरंग-बहिरंग शत्रुओंको नम्रीभूत कर दिया था, और जिन्होंने इक्कीसवां तीर्थ प्रकट किया था उन नमिनाथ भगवान्के लिए नमस्कार हो ॥२३।। जो सूर्यके समान देदीप्यमान थे, हरिवंशरूपी पर्वतके उत्तम शिखामणि थे,
और बाईसवें तीर्थरूपी उत्तम चक्रके नेमि (अयोधारा) स्वरूप थे उन अरिष्टनेमि तीर्थंकरके लिए नमस्कार हो ।।२४।। जो तेईसवें तीर्थके धर्ता थे तथा जिनके ऊपर पर्वत उठाकर उपद्रव करनेवाला असुर धरणेन्द्रके द्वारा नष्ट किया गया था वे पार्श्वनाथ भगवान् जयवन्त हों ।।२५।। इस प्रकार इस अवसर्पिणीके तृतीय और चतुर्थ कालमें धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनेवाले जो जिनेन्द्र हुए हैं वे सब हम लोगोंकी सिद्धिके लिए हों ।।२६|| जो भूतकालकी अपेक्षा अनन्त हैं, वर्तमानको अपे हैं, और भविष्यत्की अपेक्षा अनन्तानन्त हैं वे अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुसमस्त पंच परमेष्ठी सब जगह तथा सब कालमें मंगलस्वरूप हों ।।२७-२८॥
जो जीवसिद्धि नामक ग्रन्थ ( पक्षमें जीवोंकी मुक्ति ) के रचयिता हैं तथा जिन्होंने युक्त्यनुशासन नामक ग्रन्थ ( पक्षमें हेतुवादके उपदेश ) की रचना की है ऐसे श्री समन्तभद्रस्वामीके
१. प्रवतितं । २. विस्तारितयशसा। ३. तीर्थाय म.। ४. चक्रवति पदधारकतीर्थकरपदधारक-अरनाथाय । ५. विध्वस्तपापवैरिवर्गाय । ६. मोह एव महामल्लस्तं मथितुं शीलं यस्य तादृशो मल्लस्तस्मै । ७. नमितान्तबहिर्वेरिवर्गाय । ८. प्रवर्तकाय । ९. धरणेन धरणेन्द्रेण निधूतः पर्वतोद्धरणः असुरो यस्य सः । १०. सर्वोत्कर्षण वर्तताम् । ११. भूतकालापेक्षातः। १२. वर्तमानकालापेक्षातः । १३. भविष्यकालापेक्षातः । १४. जीवानां सिद्धिस्तद्विधायि, द्वितीयपक्षे जीवसिद्धिनाम ग्रन्यस्तत्कारकं । १५. कृता युक्तिर्यत्र एतादृशम् अनुशासनं यत्र द्वितीयपक्षे युक्त्यनुशासनं नाम ग्रन्थः स कृतो येन तत् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org