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श्रीमज्जिनसेनाचार्यविरचितं
हरिवंशपुराणम्
प्रथमः सर्गः
सिद्धं धौव्य व्ययोत्पादलक्षणद्रव्यमाधनम् । जैनं द्रव्याद्यपेक्षातः साधनाद्यर्थ शासनम् ॥१॥ 'शुद्धज्ञानप्रकाशाय लोकालोकैकमानवे । नमः श्रीवर्द्धमानार्य वर्द्धमान जिनेशिने ॥२॥ नमः सर्वविदे सर्वव्यवस्थानां विनायिने । कृतादिधर्मतीर्थाय वृषभाय स्वयम्भुवे ॥३॥ येन तीर्थमभिव्यकं द्वितीयमजितायितम् । अजिताय नमस्तस्मै जिनेशाय जितद्विषे ॥४॥ शं भवे वा विमुक्तौ वा भक्ता यत्रैव शम्मवे' । भेजुर्भव्या नमस्तस्मै तृतीयाय च शम्भवे ॥५॥
यदु कुल जलधि सुचन्द्र सम, वृष रथचक्र सुनेमि भव्य कमल दिनकर जयो, जयो जिनेन्द्र सुनेमि ॥१॥ देव शास्त्र गुरुको प्रणमि, बार बार शिर नाय ।
श्री हरिवंश पुराणकी, भाषा लिखू बनाय ॥२॥ जो वादी-प्रतिवादियोंके द्वारा निर्णीत होने के कारण सिद्ध है. उत्पाद. व्यय एवं ध्रौव्य लक्षणमे युक्त जीवादि द्रव्योंको सिद्ध करनेवाला है, और द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा अनादि तथा पर्यायाथिक नयको अपेक्षा सादि है ऐसा जिन-शासन सदा मंगलरूप है ॥१॥ जिनका शुद्ध ज्ञान रूपी प्रकाश सर्वत्र फैल रहा है, जो लोक और अलोकको प्रकाशित करनेके लिए अद्वितीय सूर्य हैं, तथा जो अनन्तचतुष्टय रूपी लक्ष्मीसे सदा वृद्धिंगत हैं ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्रको नमस्कार हो ॥२॥ जो सर्वज्ञ हैं, युगके प्रारम्भकी सब व्यवस्थाओंके करनेवाले हैं, तथा जिन्होंने सर्वप्रथम धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति चलायी है उन स्वयंबुद्ध भगवान् वृषभदेवको नमस्कार हो ॥३।। जिन्होंने अपने ही समान आचरण करनेवाला द्वितीय तीर्थ प्रकट किया था तथा जिन्होंने अन्तरंग बहिरंग शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली थी ऐसे उन अजितनाथ जिनेन्द्रको नमस्कार हो॥४|| जिन शंभव नाथके भक्त भव्यजन संसार अथवा मोक्ष-दोनों ही स्थानोंमें सुखको प्राप्त हुए थे उन तृतीय शंभवनाथ तीर्थकरके लिए
१. ध्रौव्यव्ययोत्पादलक्षणं म.। २. अथेत्यव्ययं मङ्गलवाचकम् 'मङ्गलानन्तराराजप्रश्नकात्स्र्नेष्वथो अथ' इत्यमरः । ३. गुद्धज्ञानमेव प्रकाशो यस्य तस्मै । ४. श्रिया वर्द्धमानो यः स तस्मै। ५. गृहस्थादिव्यापाराणाम् । ६. शं सुखम् । ७. संसारे । ८. मोक्षे । ९. यस्मिन् सति । १०. तृतीयतीर्थङ्करे । ११. शं सुखं भवति यस्मात इति शम्भुस्तस्मै शम्भवे चतुर्थ्यन्तप्रयोगः ।
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