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प्रथमः सर्गः
'आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरस्य जितात्मकम् ॥ ३८ ॥ जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलङ्कावभासते ॥३९॥
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याsमिताभ्युदये पाइवे जिनेन्द्र गुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्त्ति संकीर्तयत्यसौ ॥४०॥ वर्धमानपुराणोद्यदादिस्योक्तिगभस्तयः । प्रस्फुरन्ति ́ गिरीशान्तःस्फुटस्फटिकभित्तिषु ॥ ४१|| निर्गुणाऽपि गुणान् सद्भिः कर्णपूरीकृता कृतिः । विभयैव वधूवक्त्रैश्च्तस्येवाग्रमञ्जरी ॥ ४२ ॥ साधुरस्यति काव्यस्य दोषवत्तामयाचितः । पावकः शोधयत्येव कलधौतस्य कालिकाम् ||४३॥ काव्यस्यान्तर्गतं लेपं कुतश्चिदपि सत्सभाः । प्रक्षिपन्ति बहिः क्षिप्रं सागरस्येव वीचयः ॥ ४४ ॥ मुक्ताफलतयाऽऽदानात् परिषद्भिः कृतिः स्फुरेत् । जलात्मापि विशुद्धाभिस्तोयधेरिव शुक्तिभिः || ४५॥ दुर्वचोविषदुष्टान्तर्मुखं स्फुरितजिह्वकान् । निगृह्णन्ति " खलव्यालान् सन्नरेन्द्राः"स्वशक्तिभिः ॥४६॥
कविका विशेषवादोपना सर्वत्र प्रसिद्ध है ||३७|| श्री कुमारसेन गुरुका वह यश इस संसार में समुद्र पर्यन्त सर्वत्र विचरण करता है जो प्रभाचन्द्र नामक शिष्यके उदयसे उज्ज्वल है तथा जो अविजित रूप है - किसीके द्वारा जीता नहीं जा सकता है ||३८|| जिन्होंने स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों को लिया है तथा जो कवियों के चक्रवर्ती हैं ऐसे श्री वीरसेन स्वामीकी निर्मल कीर्ति प्रकाशमान हो रही है ||३९|| अपरिमित ऐश्वयंको धारण करनेवाले श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्रको जो गुणस्तुति है वही जिनसेन स्वामीकी कीर्तिको विस्तृत कर रही है ।
भावार्थ - श्री जिनसेन स्वामीने जो पार्श्वाभ्युदय काव्यकी रचना की है वही उनकी कीर्तिको विस्तृत कर रही है ॥४०॥ वर्धमान पुराणरूपी उगते हुए सूर्यकी सूक्तिरूपी किरणें विद्वज्जनोंके अन्तःकरणरूपी पर्वतोंको मध्यवर्तिनी स्फटिककी दीवालोंपर देदीप्यमान हैं || ४१ || जिस प्रकार स्त्रियोंके मुखोंके द्वारा अपने कानोंमें धारण की हुई आमकी मंजरी निर्गुणा - डोरा - रहित होनेपर भी गुण सौन्दर्य विशेषको धारण करती है उसी प्रकार सत् पुरुषोंके द्वारा श्रवण की हुई निर्गुणा-गुण रहित रचना भी गुणोंको धारण करती है । भावार्थं - यदि निर्गुण रचनाको भी सत् पुरुष श्रवण करते हैं तो वह गुण सहितके समान जान पड़ती है ||४२ ||
साधु पुरुष याचना के बिना ही काव्यके दोषोंको दूर कर देता है सो ठीक ही है क्योंकि अग्नि स्वर्णकी कालिमाको दूर हटा ही देती है ||४३|| जिस प्रकार समुद्र की लहरें भीतर पड़े हुए मैलको शीघ्र ही बाहर निकालकर फेंक देती हैं उसी प्रकार सत्पुरुषों की सभाएँ किसी कारण काव्यके भीतर आये हुए दोषको शीघ्र ही निकालकर दूर कर देती हैं ||४४|| जिस प्रकार समुद्रकी निर्मल सीपोंके द्वारा ग्रहण किया हुआ जल मोतीरूप हो जाता है उसी प्रकार दोषरहित सत्पुरुषोंकी सभाओंके द्वारा ग्रहण की हुई जड़ रचना भी उत्तम रचनाके समान देदीप्यमान होने लगती है || ४५ || दुर्वचनरूपी विषसे दूषित जिनके मुखोंके भीतर जिह्वाएँ लपलपा रही हैं ऐसे दुर्जनरूपी
१. श्रीकुमारसेनस्य शिष्यः प्रभाचन्द्र आसीत् येन चन्द्रोदय नाम शास्त्रं रचितम् । आदिपुराणे श्रीजिनसेनाचार्येणापि प्रभाचन्द्रस्य स्मरणं कृतम् - " चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे । कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ॥" । २. केनापि विजितम् । ३. यामिताभ्युदयपाश्वं ख । यामिताभ्युदये पार्श्व =म., पार्श्वे = पार्श्वनाथतीर्थङ्करदेवे । ४. पण्डितानां मनः स्फटिकभित्तिषु ! ५ गुणान् बिभति इति संबन्धः । ६. पण्डितपरिषदः । ७. कल्लोलाः । ८. सभाभिः । ९. मुखे म. । १०. दुर्जननागान् । ११. उत्तमनृपाः । पक्षे उत्तमविषवैद्याः ।
★ यहाँ भी वर्धमान पुराणके रचयिताका नाम प्रकट नहीं किया गया है ।
+ गिरां वाणीनाम् ईशा गिरीशाः विद्वांसः, पक्षे गिरीणां पर्वतानामीशा गिरीशाः ।
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