________________ परस्वत्वकृतोन्माथा, भूनाथा न्यूनतेक्षिणः / स्वस्वत्वसुखपूर्णस्य, न्यूनता न हरेरपि॥७॥ पर में जिन्होंने स्वत्व माना वे नृपादिक व्यग्र है। वे मानते मन में कि हम तो अपूर्ण है न समग्र है। आत्मिक सुखों से पूर्ण मुनि इन्द्रादि से भी समृद्ध है। परिपूर्णता को. लब्ध ज्ञानी सिद्धि-आकर सिद्ध है॥७॥ पर पदार्थों में स्वत्व की कल्पना से उन्मत्त बनते राजा भी सदैव अपनी न्यूनता को ही देखते हैं। जबकि स्व अर्थात् आत्मा को ही स्व मानने के पूर्ण सुख का अनुभव करने वाली आत्मा को इन्द्र से भी कुछ भी न्यूनता का आभास नहीं होता। Those kings and all who consider material belongings their own are restless beings with an illusion of being complete. In fact a person with inner bliss is wealthier than Indra. Such wise men are truly complete.