________________ आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं जानात्यात्मानमात्मना।। सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरुच्याचारैकता मुनेः // 2 // आत्मा जो जाने आतम से अरु आतम में शुद्ध आतमा। चारित्र दर्शन ज्ञान रत्नत्रयी निधान करे जमा॥ रत्नत्रयी में साधु को हो भेद विरहित परिणति / एकत्व होता रत्न त्रय में ऐसा साधु महाव्रती // 2 // आत्मा आत्मा में ही शुद्ध आत्मा को आत्मा के द्वारा जानता है ऐसी ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रयी में श्रद्धा और आचार की अभेद परिणति मुनि को होती है। The soul realizes the inherent purity of soul through the natural activity of soul. Such is the sublime fused state of the trilogy of knowledge, perception and conduct. Such a fusion manifests itself in a true sage. {98)