________________ स्वस्वकर्मकृतावेशाः, स्वस्वकर्मभुजो नराः / न रागं नापि च द्वेषं, मध्यस्थस्तेषु गच्छति // 4 // नर सकल अपने कर्मवश हैं कर्म फल ही भोगते। उन मानवों पर राग क्या क्या द्वेष करना सोचते // मध्यस्थ तो उन पर करें ना राग भी ना द्वेष भी। मन को विमल मध्यस्थ वृत्ति में रखे साधु सभी / / 4 / / अपने-अपने कर्म में मनुष्य परवश बना हुआ है और अपने-अपने और द्वेष को प्राप्त नहीं करता। A Sadhu keeps his heart clear and equanimous, realizing that there is no point in liking or disliking people, for all actions and the resulting sufferrings are caused by ones own karma. {124)