________________ चित्तेऽन्तर्ग्रन्थगहने, बहिनिम्रन्थता वृथा। त्यागात्कञ्चकमात्रस्य, भुजङ्गो न हि निर्विषः // 4 // अन्तर परिग्रह से हृदय यदि विकल है तो व्यर्थ है। निम्रन्थ केवल बाह्य है उसका परम क्या अर्थ है। ना सर्प केवल केंचुली के त्याग से विष रहित हो। त्यों साधु भी वो है न जो अन्तर् परिग्रह सहित हो॥4॥ - यदि अन्तरंग परिग्रह से मन व्याकुल है तो बाह्य निर्ग्रन्थत्व व्यर्थ है। मात्र कांचली छोड़ देन से सर्प विष रहित नहीं बन जाता। If the heart is plagued by a craving for possessions, wearing the garb of a monk is meaningless. A snake does not loose its poison just by shedding its skin. {198}