________________ आपत्तिश्च ततः पुण्यतीर्थकृत्कर्मबन्धतः / तद्भावाभिमुखत्वेन, सम्पत्तिश्च क्रमाद् भवेत्॥4॥ अति पुण्य रूपी तीर्थपति का बंध हो समापत्ति से। उस कर्म से फल प्राप्त हो आपत्ति नाम कहे जिसे // अनुक्रमे तीर्थकर महापद के समक्ष बढ़े यदा। अनमोल संपत्ति रूप परिणति प्राप्त होती है तदा // 4 // उस समापत्ति से पुण्य प्रकृति रूप तीर्थंकर नाम कर्म के बंध स्वरूप फल की प्राप्ति होती है और तीर्थंकर नाम कर्म की अभिमुक्ता से क्रमश: आत्मिक संपत्ति रूप फल होता है। This fusion gives rise to virtuous transformations that result in acquisition of Tirthankar-nam-karma (the karma that causes birth as a Tirthankar). This culminates in the unparalelled bliss of ultimate transformation into the pure and liberated state. {236}