________________ लोके सर्वनयज्ञानां, ताटस्थ्यं वाऽप्यनुग्रहः / स्यात्पृथड्.नयमूढानां,,स्मयार्तिर्वोऽतिविग्रहः // 4 // नय सकल के ज्ञाता जनों के मन रहे सम भावना। माध्यस्थ्य मति उपकार मति से पूर्ण मन की साधना // पर अलग नय की मान्यता में मूढ़ नर जो हो गया। ािन में अतिक्लेश में मन सकल उसका खो गया॥4॥ आभमान.... लोक में सभी नयों के जानकार को माध्यस्थ भाव अथवा उपकार बुद्धि होती है। अलग-अलग नयों में मोहग्रस्त (आत्मा) को अभिमान की पीड़ा अथवा अत्यन्त क्लेश होता है। He who has knowledge of all the Nayas attains the equanimous or balanced state and is full of beneficence. He who is attached to different Nayas is an illusioned soul suffering acute agony of conceit. - 1252