________________ रुद्धब्राह्यमनोवृत्तेर्धारणाधारया रयात्। प्रसन्नस्याऽप्रमत्तस्य, चिदानन्दसुधालिहः // 7 // निज ध्येय में स्थिर धारण का धार वेग बढ़ा दिया। ब्रह्मेन्द्रियों में लीन मन की वृत्ति रोकी, स्थिर किया। मन में कलुष ना, अप्रमादी ज्ञान का अमृत पिया। शुभ ध्यान में ही योगिजन का रमण करता है जिया। ध्येय में मन की स्थिरता रूप धारण की सतत धारा के वेग से जिसने बाह्य इन्द्रियों का अनुसरण करने वाली मन की वृत्ति को रोका है, जो प्रसन्न मन वाला है, प्रमाद रहित है, ज्ञाननन्द रूप अमृत का आस्वादन करने वाला है। With the force of a continuous flow of serenity emerging out of the deep concentration on the goal, he has disciplined the attitudes that are stirred by senses. Who has joyous mind, who is free of illusions and enjoys the nectar of bliss of knowledge - {239}