________________ यत्र ब्रह्म जिनार्चा च, कषायाणां तथा हतिः। सानुबन्धा जिनाज्ञा च, तत्तपः शुद्धिमिष्यते // 6 // तप शुद्ध वर ज्ञानी गुरु भगवंत ने उसको कहा। जिसमें जिनेश्वर पूजना हो, ब्रह्मचर्य विपुल रहा। जिसमें कषायों की रहे हर पल हृदय में क्षीणता। अनुबंध युत परमात्म की आज्ञानुपालन तीव्रता / / 6 / / जिसमें ब्रह्मचर्य है, जिन पूजा है, कषायों का क्षय है तथा अनुबंध सहित जिनाज्ञा प्रवर्तमान है वह तप शुद्ध कहलाता है। That which includes celibacy, worship of the Jina, erosion of passions, and discipline of the tenets of the Jina is called pure penance. {246}