________________ तदेव हि तपः कार्य, दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत्। येनं योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च // 7 // पल के लिये भी ध्यान विकृत ना कभी जिसमें बने। संयम क्रियाओं में भी हो ना हानि यों हो इक मने॥ नहिं इन्द्रियां भी क्षीण हो निज कार्य में संलग्न हो। ऐसे परम तप में सदा युग लगन से अति मग्न हो॥7॥ निश्चय से वही तप करने योग्य है जिसमें दुर्ध्यान नहीं होता, जिसमें मन वचन काया के योगों की हानि नहीं होती और इन्द्रियों का क्षय नहीं होता। Indeed, that penance is worth doing which is devoid of ill feelings, which does not reduce the unison of mind, speech, and body, and which does not cause the decay of senses. {247}