Book Title: Gyansara
Author(s): Maniprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 267
________________ साम्राज्यमप्रतिद्वन्द्वमन्तरेव वितन्वतः। ध्यानिनो नोपमा लोके, सदेवमनुजेऽपि हि॥ 4 // अन्तर् जगत में ही निजातम राज्य को विस्तारते। ना शत्रु है ना युद्ध है सारी सीमायें लांघते // नर लोक में या देव जग में घट सके ना ओपमा। वंदन करे उस योगी को हम ध्यान पथ में जो रमा॥8॥ अपनी अन्तर् आत्मा में ही विपक्ष रहित अपने साम्राज्य का विस्तार करता हुआ ऐसे ध्यानवंत साधकों की देवलोक और मनुष्य लोक में भी वास्तव में कोई उपमा नहीं है। He who expands his inner empire where exists no adversary. There exists no metaphor on earth or in heaven for such a meditating sage. {240}

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