________________ पश्यतु ब्रह्म निर्द्वन्द्वं, निर्द्वन्द्वानुभवं विना। कथं लिपिमयी दृष्टिर्वाङ्मयी वा मनोमयी॥ 6 // मनलिपि मयी या वाङ्मयी दृष्टि से आत्म दिखे नहीं। प्रत्यक्ष अनुभव से मुनि साक्षात्कार करे सही॥ निर्द्वन्द्व अनुभव के बिना निर्द्वन्द्व ब्रह्म दिखे नहीं। अनुभव बिना निज रूप को नर प्राप्त करता है नहीं॥6॥ राग द्वेषादि क्लेश रहित शुद्ध अनुभव ज्ञान के बिना मात्र शास्त्र दृष्टि, वाणी रूप दृष्टि अथवा मनन रूप दृष्टि उस निर्द्वन्द्व राग द्वेष रहित आत्मा को कैसे देख सकती है। That unambiguous soul devoid of any attachment or aversion is beyond the reach of visual, verbal, or mental perception in absence of sublime and direct expericnce that is free of pollutants like attachment, aversion etc. {206}