________________ कर्मयोगं द्वयं तत्र, ज्ञानयोगं त्रयं विदुः / विरतेष्वेष नियमांद, बीजमानं परेष्वपि // 2 // पांचों प्रकारों में कहे दो कर्म हैं त्रय ज्ञान हैं। निश्चित रहे उनमें सकल या देशविरति-वान है। पर जीव जो है मात्र सम्यक दृष्टि उनमें योग भी। अपुनर्बंधक में भी केवल बीज रूपी हो सभी॥2॥ उसमें दो कर्मयोग (क्रिया रूप) और तीन ज्ञान योग (ज्ञान स्वरूप) हैं / ये योग नियमत: विरतिवान् में अवश्श्यक होते हैं, अन्यों में भी बीज रूप होते हैं। Of these, two are physical in dimension and three spiritual. They are evident in the detached and dormant in others. {210)