Book Title: Gyansara
Author(s): Maniprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 250
________________ ब्रह्मण्यर्पितसर्वस्वो, ब्रह्मदृग ब्रह्मसाधनः। ब्रह्मणां जुह्वदब्रह्म, ब्रह्मणि ब्रह्मगुप्तिमान् // 7 // वर ब्रह्म को सर्वस्व जिस निर्ग्रन्थ ने अर्पण किया। दृष्टि भी ब्रह्म में ब्रह्म ही है ज्ञान साधन का दीया। उपयोग रूपी ब्रह्म से अज्ञान होमे जो सदा। वर ब्रह्मचारी साधु हो ना लिप्त पापों से कदा॥7॥ जिसने ब्रह्म में सर्वस्व अर्पण किया है, ब्रह्म में ही जिसकी दृष्टि है, ब्रह्म रूप ज्ञान ही जिसका साधन है और ब्रह्म के द्वारा ब्रह्म में जो अब्रह्म का हवन करता है, जो ब्रह्म गुप्ति वाला है। He who has submitted all to the Brahma, who sees only the Brahma, whose only goal as Brahma, who burns everything other than pure in the ultimate fire through this submission is the true detacched ascetic. {223}

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