________________ केषां न कल्पनादी, शास्त्रक्षीरानेगाहिनी। विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया॥5॥ ये शास्त्र आगम सकल जो मधु स्वाद पूरित क्षीर है। उसमें चलाते कल्पना का चमच कई मति वीर हैं। अनुभव स्वरूपी जीभ से आस्वाद विरले ही करे। अनुभव सदा ही मुख्य है उससे ही भव सागर तरे। 5 / / किसका कल्पना रूप चम्मच शास्त्र रूपी खीर में प्रविष्ट नहीं होता ? लेकिन अनुभव रूप जिह्वा के द्वारा शास्त्र के आस्वाद को जानने वाले तो विरले ही होते हैं। Which spoon of imagination does not take a dip into the sweet dish of the shastras. But in absence of the tongue of experience who can get the true taste of the shastras. {205}