________________ स्थैर्यं भवभयादेव, व्यवहारे मुनिव्रजेत्। स्वात्मारामसमाधौ तु, तदप्यन्तर्निमज्जति // 4 // व्यवहार नय से साधु भव से भीत हो स्थिरता लहे। पर जब मुनीश्वर आत्मरति निजभाव गंगा में बहे // तब आत्म भाव समाधि में भवभय जरा रहता नहीं। भय जगत सकल विलीन हो जावे समाधि में सही॥8॥ व्यवहार नय से संसार के भय से ही साधु स्थिर बनता है। परन्तु अपनी आत्मा की रति रूप समाधि में लीन होने पर वह भय भी अंदर समाप्त हो जाता है। Practically speaking it is the fear of the world that compels a sage to be indrawn and still. But as he gradually becomes engrossed in romancing with his inner self this fear evaporates. {176}