________________ श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे न च / स्तोका हि रत्नवणिजः, स्तोकाश्चस्वात्मसाधकाः // 5 // मोक्षाभिलाषी लोक में लोकोत्तरे भी अल्प है। जो लोक-रंजन ना करें मुनि नर बहुत ही स्वल्प है। व्यापारकर्ता रत्न के होते जगत में अल्प ज्यों। निजआत्मसाधक साधनारत साधु होते स्वल्प त्यों॥5॥ निश्चित ही लोक में/लोकोत्तर में मोक्ष के अभिलाषी थोड़े ही हैं। जिस प्रकार रत्नों के व्यापारी थोड़े ही होते हैं उसी प्रकार अपनी आत्मा की साधना करने वाले भी थोड़े ही होते हैं। Few are the people desiring 'Moksha' (Saluation), fewer still who do not cater to the fancies of the populace. Just as there are very few traders in the field of gems and jewles, so there are very few sadhus in a genuine pursuit of salvation. {181}.