________________ लोकसंज्ञोज्झितः साधुः, परब्रह्मसमाधिमान्॥ गतद्रोहममतामत्सरज्वरः // 8 // सुखमास्ते जो लोक संज्ञा रहित है, पर ब्रह्म में सुसमाधि है। हुई नाश मत्सर द्रोह ममता रूप व्याधि उपाधि है। ऐसे मुनीश्वर जगत में रहते परम सुख में सदा। .. उनके चरण में वन्दना हो भावभीनी सर्वदा॥8॥ लोकसंज्ञा से रहित, पर ब्रह्म में समाधिरत, द्रोह, ममता, मत्सर (गुण-द्वेष) रूप ज्वर नाश कर दिया है जिन्होंने, ऐसे साधु सुख में रहते हैं। Those who are detatched from worldly indulgences stay transfixed in the 'Brahma'. Such munis are worthy of profound salutations for they are not afflicted with ailments like malice, over-indulgance and vindictiveness. . (184