________________ आलम्बिता हिताय स्युः, परैः स्वगुणरश्मयः। अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ / / 3 / / निज गुण ग्रहण जो अन्य नर करता भवोदधि को तिरे। लेकिन मनुज निज गुण ग्रहे तो चक्र भव में ही फिरे। गुण रश्मियाँ नर पकड़ कर भव कूप से जावे निकल। पर-रश्मियाँ जो स्वयं पकड़े डूबता भव कूप मल // 3 // दूसरे लोग जब तुम्हारी गुण रूप रश्मियाँ प्राप्त करते हैं, तो इसमें उनका हित होता है, पर आश्चर्य तो यह है कि यदि उन्हीं अपने गुणों की रश्मियों को तुम स्वयं पकड़ते हो तो भवसागर में डूबो देती हैं वे रश्मियाँ। When one's virtues reach out to touch other they are benefitted. But paradoxically when one's virtues touch or affect one's ownself they drown us in conceit thereby rendering it impossible to extricate oneself from the vicious cycle of birth and rebirth. {139)