________________ स्मरौर्वाग्निर्व्वलत्यन्तयंत्र स्नेहेन्धनः सदा। यों घोररोगशोकादिमत्स्यकच्छपसंकुलः // 3 // है मध्य इंधन स्नेहरूपी काम वडवानल जले। दुख रोग शोकादिक मछलियाँ काछवे उसमें पले॥ संसार ऐसा कीच है रे जीव ! अब तूं जाग जा। फँसना नहीं जग बंध में सब ज्ञात कर तूं भाग जा॥3॥ जिसके मध्य में हमेशा स्नेह रूप ईंधन से युक्त काम रूप दावानल जलता रहता है। जो भयंकर रोग शोकादि रूप मछलियों/काछवों से भरा हुआ है। The fathomless expanse of this ocean like world is live with fire of lust fueled by affection. Fishes and turtles of diseases and sufferings abound there. This world is such a quagmire that, O' ye being, run if you can. {171}