________________ . ज्ञानी तस्माद् भवाम्भोधेर्नित्योद्विग्नोऽतिदारुणात्। तस्य सन्तरणोपायं सर्वयत्लेन कांक्षति // 5 // ऐसे भयंकर जगत सागर का जिसे हो भान है। . उद्विग्न बन वे सोचते जिनके हृदय सद्ज्ञान है। कैसें तिरु संसार पारावार को क्या मैं करूं। वे चाहते मन में कि बस अब शीघ्र भवसागर तरूं। 5. ऐसे भयंकर संसार समुद्र से उद्विग्न बने ज्ञानी पुरुष हमेशा पूर्ण प्रयत्न से ऐसे सागर को तिरने की इच्छा रखते हैं। Perturbed by such a dangerous ocean like world the discerning persons constantly endeavour to ford across and seek salvation. {173}