________________ विषमा कर्मणः सृष्टिद्देष्टा करभपृष्ठवत्। जात्यादिभूतिवैषम्यात्, का रतिस्तत्र योगिन: ? // 4 // सृष्टि विषम है कर्म की रचना गति अति विषम है। कई जाति से हैं हीन ऊंचे कर्म को ना शरम है। है कर्म की ये विषमता बस ऊंट पीठ समान है। यों देख मुनि धारे न प्रीति नित रहे निजभान है॥4॥ कर्म की यह सृष्टि ऊंट की पीठ के समान के विषम है / (अर्थात् समानता का अभाव है) जाति आदि उत्पत्ति के वैषम्य से भरी इस सृष्टि में योगी को क्या प्रीति हो सकती है ? This world which is the resultant of the process of Karma is as enigmatic as the odd back of a camel. Therefore a Sadhu never gets attached to such a world where paradoxes like lofty deeds in a low caste coexist. {164}