________________ साम्यं बिभर्ति यः कर्मविपाकं हृदि चिन्तयन्। स एवं स्याच्चिदानन्द-मकरन्दमधुव्रतः // 8 // शुभ अशुभ कर्म विपाक को जो देख मन समता धरे। मुनिराज योगी वे सदा जो पान शम रस नित करे॥ वे ही मुनीश्वर ज्ञान के आनंद में रहते मगन / सद्ज्ञान रूपी पष्प रस का भोग करते भ्रमर बन // 8 // हृदय में कर्म विपाक का चिन्तन करता हुआ जो समभाव धारण कर लेता है, वही योगी ज्ञानानन्द रूप पराग को भ्रमरवत् भोग करता है। The accomplished sage watches with equanimity the ups and downs in life recognizing them to be the result of fruition of accumulated karma. They are at peace with themselves and like honeybees constantly suck the juice of knowledge. (168)