________________ मनः स्याद् व्यापृतं यावत्, परदोषगुणग्रहे। कार्यं व्यग्रं वरं तावन्मध्यस्थेनात्मभावनें॥5॥ पर दोष या गुण देखने में जब तलक मन रत रहे। उतना समय भी साधु जन तो आत्म चिंतनरत रहे। पर चिंतना से क्या मिले मध्यस्थ नर यह सोचता। निज ध्यान से निज चेतना से मोक्ष का मिलता पता // 5 // जब तक मन दूसरों के दोष और गुण को ग्रहण करने में प्रवर्तमान हो तब तक मध्यस्थ पुरुष के लिये अपने मन को आत्म चिन्तन में जोड़ना श्रेष्ठ है। A sadhu with an equanimous heart does not waste time observing the vices and virtues of others, for according to such a man it is better to utilize that time in meditating on the 'Self' in order to attain 'Moksha'. {125}