________________ इष्टकाद्यपि हि स्वर्ण, पीतोन्मत्तो यथेक्षते। आत्माऽभेदभ्रमस्तद्ववहादावविवेकिनः // 5 // पीकर बना उन्मत्त उसको इंट भी सोना दिखे। क्या सत्य है मिथ्या है क्या वो क्या पढ़े वो क्या लिखे॥ अविवेकधारी जीव माने देह को ही आतमा। रे नर ! अभी तक खूब तूं अविवेक के कारण भमा॥5॥ धतूरे का पान करने से उन्मादी जीव जिस प्रकार ईंट आदि को भी सोना मान लेता है ठीक उसी प्राकर अविवेकी को जड़ शरीर आदि में आत्मा के अभेद का भ्रम हो जाता है। To one in a stupor even a brick could appear to be one made of gold as he is incapable of discerning reality from unreality. Such illusions are the lot of unconscientious people who confuse the body for the soul. {117}