________________ पुरः पुरः स्फुरत्तृष्णामृगतृष्णाऽनुकारिषु। इन्द्रियार्थेषु धावन्ति, त्यक्त्वा ज्ञानाऽमृतं जडाः // 6 // हर समय उठती कामना .ज्यों पूर्ण हो उठती नई। है कामना मृग मरीचिका सम होश में आओ भई॥ इन्द्रिय सुखों के कीच पीछे मूर्ख क्यों तूं दौड़ता। पाने उसे निज ज्ञान अमृत आत्म गंगा छोडता // 6 // जिनकी तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है, ऐसे मूर्ख पुरुष ज्ञान रूप अमृत को छोड़कर मृग तृष्णा रूप इन्द्रियों के विषयों में दौड़ता रहता है। A desire resurfaces every time it is satiated. It is like a mirage. So wake up, why like a fool should you pursue it ? Why forsake self-realization for it ? - {54}.