________________ स्वगुणैरेव तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी। ज्ञानिनों विषयैः किं तैयैर्भवेत् तृप्तिरित्वरी॥२॥. ज्ञानादि निज गुण से सदा जो तृप्त बनते श्रुत धरा। वह तृप्ति रहती है सदा मिट जाती है न कभी जरा।। उनका न मन विषयों में डूबे तृप्ति जो दे क्षणिक ही। वे तो परम निज बोध रस में डूबते तृप्ति लही॥२॥ यदि ज्ञानी को अपने ज्ञानादि गुणों द्वारा ही कभी नष्ट न हो. ऐसी तृप्ति होती है तो फिर जिन विषयों के द्वारा स्वल्प काल की ही तृप्ति होती है, उन विषयों का क्या प्रयोजन है। When a sage reaches a state of euphoria due to his knowledge, why should he 'seek temporary satiety through material satisfactions. - {74}