________________ लिप्यते पुद्गलस्कन्धो, न लिप्ये पुद्गलैरहम्। . . चित्रव्योमाञ्जनेनेवं, ध्यायन्निति न लिप्यते // 3 // चत्रव्या " हो लिप्त पुद्गल स्कंध पुद्गल से नहीं मैं लिप्त हूँ। निर्लिप्त हूँ श्रुतवान् हूँ निज भाव से परितृप्त हूँ॥ ज्यों वर विचित्रित व्योम अंजन से न होता लिप्त है। जो ध्यान ऐसा करे साधु रहे सदा निर्लिप्त है॥३॥ 'पुद्गलों का स्कंध (ही) पुद्गलों द्वारा लिप्त होता है, मैं नहीं। जिस प्रकार अञ्जन के द्वारा विचित्र आकाश (लिप्त नहीं हो सकता वैसे)। इस प्रकार ध्यान करने वाला आत्मा लिप्त नहीं होता। A sadhu who constantly meditates on the thought that he is as unaffected by the material existence as is the sky by kohl and that he is satisfied with self realization, such a man is never touched by the material world. {83}