________________ संयोजितकरैः के के, प्रार्थयन्ते न स्पृहावहै। अमात्रज्ञानपात्रस्य, निःस्पृहस्य तृणं जगत् // 2 // निस्पृह नहीं वे हाथ जोड़ी द्वार हर पर मांगते। किस किसके आगे प्रार्थना करते हुए वे याचते॥ सद्ज्ञान की सीमा नहीं वे साधु गण धन धन्य है। जग सकल निस्पृह साधु गण को लगे समतृण वन्य है // 2 // स्पृहावान् पुरुष हाथ जोड़कर किस-किसके आगे प्रार्थना नहीं करते ? जबकि अपरिमित ज्ञान के पात्र निःस्पृह साधु के लिये. सारा जगत तृण समान होता है। For the nonattached, nonchalant. sadhu the material world is not worth a straw. Whereas those with desires move without any qualms from door to door in search of alms. {90}