________________ भूशय्या भैक्षमशनं, जीणं वासो वनं गृहम्। तथापि निःस्पृहस्याऽहो, चक्रिणोऽप्यधिकं सुखम्॥७॥ पृथ्वी ही शय्या है जिसे आहार लेते मांगकर। धारे पुराने जीर्ण कपड़े मानते वन को ही घर // निस्पृह मुनीश्वर चक्रवर्ती से भी ज्यादा है सुखी। सबको स्पृहा ही करती नर नरपति विभवपति को दुखी // 7 // - स्पृहा रहित साधु के लिये पृथ्वी रूप शय्या है, भिक्षा में जो मिला वह भोजन है, फटे पुराने वस्त्र और वनरूप घर है फिर भी आश्चर्य है कि चक्रवर्ती से भी ज्यादा उन्हें सुख है। Those who are detached enough to consider the earth their bed and who live by whatever is given to them to eat or wear are happier than even the king of kings who is caught in a myriad of miseries caused by attachment. {95}