________________ निष्कासनीया विदुषा, स्पृहा चित्तगृहान बहिः / अनात्मरतिचाण्डालीसङ्ग-मङ्गी-करोति या॥४॥ चाण्डा जो आत्म से है भिन्न पुद्गल रति समागम चाहती। चांडालिनी रति का समागम ये स्पृहा यों मांगती॥ ऐसी स्पृहा मन रूप घर से बाह्य करने योग्य है। साधक मुनि ज्ञानी कहे नित स्पृहा योग्य न भोग्य है // 4 // विद्वान् पुरुषों के द्वारा तो मन रूप घर से तृष्णा बाहर निकालने योग्य है / जो तृष्णा आत्मा से भिन्न पुद्गलों में रति रूप चांडालिनी का संग अंगीकार करती है। The Sadhus with self-realization do not let attachment touch their hearts. They shun it as if it were the femme fatale herself. {92}