________________ संसारे स्वप्नवन्मिथ्या, तृप्तिः स्यादाभिमानिकी। तथ्या तु भ्रान्तिशून्यस्य, सात्मवीर्यविपाककृत्॥४॥ संसार की तृप्ति है मिथ्या स्वप्न सम शास्त्रे कही। उस तृप्ति से अभिमान क्या करता जरा सोचो सही॥ जिससे बढ़े निज आत्म वीर्योल्लास वो तृप्ति सही। भ्रम शून्य मिथ्या ज्ञान विरहित परम तृप्ति लहे वही॥४॥ संसार में अभिमान मान्यता से प्राप्त हुई तृप्ति स्वप्न की तरह (मिथ्या) होती है। सच्ची तृप्ति तो मिथ्या ज्ञान रहित को ही होती है और वह आत्मा के वीर्य को पुष्ट करने वाली होती है। In this world the satisfaction derived from conceit is as false as a dream. True satiety comes from shedding illusions and falsehoods and that alone enriches the soul. 1761