________________ अनिच्छन् कर्मवैषम्यं, ब्रह्मांशेन समं जगत्। आत्माऽभेदेन यः पश्ये-दसौ मोक्षंगमी शमी // 2 // नहिं इच्छता जो कर्म का वैषम्य मुनि उत्कृष्ट है। सब जगत में चिहुं ओर मुनि से ब्रह्म सम शुभ दृष्ट है। जग के सकल जीवों को देखे साधु वर जो आत्म सम। शम शान्त रस में लीन मुनि कर पाप क्षय हो सिद्ध सम॥२॥ जा कर्म की विषमता को नहीं चाहता, परमात्मा के अंश द्वारा बने एक स्वरूप वाले जगत को अपनी आत्मा से अभिन्न जो देखता है, वह उपशम वाला आत्मा अवश्य मोक्षगामी होता है। The pacified soul that does not desire the entanglement of Karma and considers every being in the world to be a part of the ultimate whole (Brahma) like his own self and not different, is sure to attain liberation (Moksha). {42}