________________ स्वयंभ्भूरमणस्पर्द्धि - वर्द्धिष्णुसमतारसः / मुनिर्येनोपमीयेत, कोऽपि नाऽसौ चराचरे॥६॥ सागर स्वयंभूरमण में जितना भरा शुभ नीर है। शम रूप रस उतना भरा जिस साधु में वो वीर है। उस साधु के समकक्ष उपमा इस जगत में है नहीं। वह साधु सच्चा धीर है गंभीर है शिवतीर है॥६॥ जिस मुनि का समता रस स्वयंभूरमण समुद्र की स्पर्धा करता हो, इस प्रकार वृद्धि प्राप्त करता है, उस मुनि की तुलना करने योग्य कोई भी पदार्थ समग्र विश्व में नहीं है। That Sadhu alone is truly calm and profound and is beyond compare whose heart is filled with the waters of equanimity like the waters that fill the fathomless pit of an ocean. 146)