________________ सरित्सहस्रदु-धूरसमुद्रोदरसोदरः . / तृप्तिमान्नेन्द्रियग्रामो, भव तृप्तोऽन्तरात्मना // 3 // ये इन्द्रियाँ ऐसा है सागर तृप्त जो होता नहीं। हजार नदियाँ भी गिरे तो भी अधूरा ही सही। इन इन्द्रियों को तृप्त करने विषय जग के तुच्छ है। निज बोध से परितृप्त हो हे जीव! तूं ही स्वच्छ है॥३॥ हजारों नदियों से भी जिसे पूर्ण नहीं किया जा सकता, ऐसे समुद्र के पेट के समान इन्द्रियों का समूह तृप्त नहीं होता, ऐसा जानकर अन्तरात्म भाव से तृप्त बन / The senses are insatiable just like it is impossible for even thousands of rivers to quench the thirst of the ocean. The objects that attempt to satiate this enormous lust of the senses are meagre. Knowing this, the best thing to do is to be satiated with self realization. {51}