________________ अपूर्णः पूर्णतामेति, पूर्यमाणस्तु हीयते। पूर्णानन्दस्वभावोऽयं, जगदद्भुतदायकः // 6 // आश्चर्य है जो पूर्ण है पर-द्रव्यसत्ता स्वार्थ से। होता वही है अपूर्ण मानव ज्ञान गुण परमार्थ से। पर द्रव्य से जो अपूर्ण होता . पूर्ण हो सकता वही। ज्ञानादि गुण की पूर्णता से आत्म अनुभवता लही॥६॥ जो धन धान्य आदि बाह्य भावों से अपूर्ण है, वही वास्तव में पूर्ण है। और जो बाह्य पदार्थों से अपने को पूर्ण करता रहता है, वह वास्तव में अपूर्ण है। पूर्णता में आनंद का अनुभव करने वाली आत्मा का स्वभाव जगत को आश्चर्य चकित कर देने वाला है। Totality can never be achieved by an abundance of mundane possessions: It is the apathy for such material things that leads to the experience of 'totality'. This inherent nature of soul that enjoys such detached totality seems astounding to the world around. {6}