________________ स्वद्रव्यगुणपर्याय-चर्या वर्या पराऽन्यथा। इति दत्तात्मसन्तुष्टि- सृष्टिज्ञानस्थितिर्मुनेः // 5 // निज शद्धि आतम द्रव्य में पर्याय में रमते रहो। सद् ज्ञान दर्शन चरण निज गुण ज्ञान गंगा में बहो। हितकर नहीं पर द्रव्य गुण पर्याय में हो रमणता। मुनि ज्ञान का यह सार है संतोष कारक श्रमणता // 5 // अपने द्रव्य गुण और पर्याय में परिणत रहना श्रेष्ठ है पर द्रव्य-गुण-पर्याय में परिणत होना श्रेष्ठ नहीं है, इस प्रकार जिसने अपनी आत्मा को संतोष दिया है ऐसी संक्षेप से रहस्य ज्ञान की मर्यादा मुनि को होती है। Dwell in the various forms of self-purification and flow along with the 'Ganges of right knowledge and right experience of the 'self not the 'other'. Only the true sages are aware of this conciseness of the esoteric knowlege. {37} -